शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है

कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। कर्म अर्थात् सद्कर्म, दीन दुखी, असहाय जीव की सेवा ही ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट उपासना है। जो व्यक्ति एक ओर प्राणियों पर अत्याचार करे, उनको सताए तथा बेईमानी, झूँठ चोर बाजारी को अपनाए तथा दूसरी ओर तिलक लगाकर घन्टों ईश्वर का भजन करे, वह लेखक की दृष्टि में सबसे अधम पापी है। निर्दोष असहाय को पीड़ा पहुँचाना, लेखक की दृष्टि में अधर्म है।
जो व्यक्ति तन, मन, धन से, सच्चे हृदय से असहाय, दीन व दुखियों की सहायता करता है, उनका उप्रकार करता है, उससे बढ़कर पुण्यात्मा कोई नहीं और न ही सद्कर्म अर्थात् “परोप्रकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं।”
-‘मनु’ ने ‘मनुस्मृति’ में लिखा है -
“सर्वभूतेषु चात्मान सर्वभूतानि चात्मनि।
संग पश्यन्नात्मयाजी स्वराज्यमधि गच्छति।।”
जो सब प्राणियों में स्वयं को तथा अपने में सबको देखता है तथा दूसरों के लिए स्वार्थ त्याग करता है वह स्वयं पर, अपनी इच्छाओं पर अधिकार प्राप्त कर लेता है।

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