रविवार, 31 मार्च 2013

श्री सालासर बालाजी स्वयं स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं। हर रोज दूर-दूर से भक्त मनोकामनाएं लेकर आते हैं और मनोवांछित फल पाते हैं।

राजस्थान के चुरू जिले में स्थित श्री सालासर धाम पर श्रद्धालुओं का तांता साल भर लगा रहता है। शक्ति पीठ का इतिहास सन् 1754 ई. में नागौर के असोटा निवासी साखा जाट को घिटोला के खेत में हल जोतते समय एक मूर्ति मिली। रात को स्वप्न में श्री हनुमान ने प्रकट होकर मूर्ति को सालासर पहुंचाने का आदेश दिया। उसी रात सालासर में भक्त मोहनदास जी को भी हनुमान जी ने दर्शन देकर कहा कि असोटा ठाकुर द्वारा भेजी गई काले पत्थर की मूर्ति को धोरे (टीले) पर ठाकुर सालमसिंह की उपस्थिति में स्थापित कर देना। धोरे पर जहां बैल चलते-चलते रुक जाएं, वहीं श्री बालाजी की प्रतिमा स्थापित करना।
वह बैलगाड़ी (रेड़ा) आज भी सालासर धाम में दक्षिण पोल पर दर्शनार्थ रखी हुई है। सालासर ग्राम भूतपूर्व बीकानेर राज्य के अधीनस्थ था। सालासर की देख-रेख ठाकुर धीरजसिंह जी के जिम्मे थी। उन्हीं दिनों एक प्रसिद्ध डाकू सहस्रों घोड़ों एवं साथियों को लिए, अत्याचार करता हुआ सालासर के निकट पहुंचा। संध्या हो जाने पर उसने वहीं पड़ाव डालने का विचार कर सहयोगी डाकुओं को गांव से रसद लाने को भेजा। रसद न देने पर लूट लेने की धमकी दी गई।
घबराए हुए ठाकुर सालमसिंह जी भक्तप्रवर के पास, जो टीले पर कुटिया में रहते थे, गए और कहा कि महाराज बड़ी विपत्ति में हूं, न रसद है और न सेना। तब भक्तप्रवर मोहनदास जी ने आश्वासन दिया और श्री बाला जी का नाम लेकर शत्रु की नीली झंडी को तीर से उड़ा देने का आदेश दिया। उन्होंने उसके प्रविष्ट होने से पूर्व ही ऐसा कर देने का आदेश दिया। लोगों ने ऐसा ही किया और गांव का संकट दूर हो गया। डाकू सरगना पैरों में आ गिरा और उसके सहयोगी डरके मारे भाग गए। श्री बाला जी के प्रति ठाकुर सालमसिंह की भक्ति बढ़ी और साथ ही बढ़ा भक्तप्रवर मोहनदास जी के प्रति विश्वास। इस प्रकार नीतिज्ञ एवं वचनसिद्ध महात्मा मोहनदास जी की कृपा से गांव की रक्षा एक नहीं अनेक बार हुई। महामारियों तथा अकाल की स्थितियों से समय-समय पर जनता को आश्चर्यजनक रूप से छुटकारा मिला। श्री बाला जी की मूर्ति की स्थापना सालासर में संवत् 1811 में श्रावण शुक्ला नवमी, शनिवार को हुई। उस समय जूलियासर के ठाकुर जोरावर सिंह ने मनौती पूरी होने पर बंगला (छोटा मंदिर) बनवाया। संवत् 1815 में फतेहपुर (शेखावटी) के मुसलमान कारीगर नूर मोहम्मद व दाऊ ने मंदिर का निर्माण किया। मंदिर का विस्तार संवत् 1860 में लक्ष्मण गढ़ के सेठ रामधन चैखानी ने करवाया। तब से आज तक भक्तों की मनोकामना सिद्ध होने पर सालासर में मंदिर, धर्मशालाओं आदि का निर्माण कार्य दिन-रात चल रहा है।
जालवृक्ष में श्रीफल बंधन जब सीकर नरेश, रावराजा देवी सिंह जी के पुत्र नहीं हुआ तब वे सालासर पधारे तब भक्तप्रवर मोहनदास जी ने मनोकामनापूर्ति के लिए श्रीबाला जी को एक श्रीफल (नारियल) चढ़ाकर उसे समीपस्थ जाल वृक्ष में बांध देने को कहा। भक्त की आज्ञा का भक्तिभाव से पालन करके राव राजा ने श्री मोहनदास जी से विदा ली। दस मास पश्चात कुमार का जन्म हुआ जिसका नाम लक्ष्मण सिंह रखा गया। उसके मुंडन संस्कार के लिए संवत् 1844 में राव राजा सपरिवार सालासर आए और मंदिर के समीप एक महल का निर्माण करवाया तथा भूमि भी प्रदान की। तभी से मनोकामना की पूर्ति के लिए मंदिर में स्थित जाल वृक्ष में नारियल बांधने की परंपरा चली आ रही है। वर्तमान में वह जाल वृक्ष तो नहीं है पर नारियल अभी भी चढ़ाए जा रहे हैं जो भक्तों की आस्था के वास्तु की दृष्टि से सालासर श्रीबाला जी का मंदिर श्री सालासर बाला जी मंदिर पूर्व मुखी है जिसके आग्नेय क्षेत्र में धूनी है। इसके ईशान में कुआं है और खुला और बढ़ा हुआ आंगन है। र्नै त्य (दक्षिण-पश्चिम) क्षेत्र बंद है। सालासर का विस्तार भी पूर्व, ईशान में है। श्रीबाला जी के मंदिर की पूर्व दिशा में 2 किलोमीटर पर अंजना माता का मंदिर है। शुभ वास्तु लक्षणों से भरपूर यह मंदिर वैभवशाली एवं सुंदर है। सालासर धाम में असोज व चैत्र मास की पूर्णिमा को दो बड़े मेले लगते हैं जिनमें 15 लाख श्रद्धालुओं के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था अनेक संस्थाओं द्वारा की जाती है। श्री सालासर बालाजी स्वयं स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं। यह विश्व में हनुमान भक्तों की असीम श्रद्धा का केंद्र है। हर रोज दूर-दूर से भक्त मनोकामनाएं लेकर आते हैं और मनोवांछित फल पाते हैं।
प० राजेश कुमार शर्मा भृगु ज्योतिष अनुसन्धान एवं शिक्षा केन्द्र सदर गजं बाजार मेरठ कैन्ट 09359109683










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