देवता भी दिव्य पितरो के श्राद्ध करते है हम अपने पितरो के लिये क्या करे
अत्येष्ठि के एक वर्ष पश्चात श्राद्ध कर्म किया जाता है। यह कर्म मृत्य पितरों के लिये किया जाता हैं। जो पितर स्वर्ग मे निवास करते है उनका भी और जो पितर दुखी हों उनका भी पृथ्वी पर रहने वाले परिवार के प्रमुख द्धारा आत्मा कि शान्ति के लिये श्राद्ध किया जाता हैं। श्राद्ध पुत्र द्धारा किया जाता हैं, किसी के पुत्र न हो और पति भी न हो तो पत्नी भी श्राद्ध कर सकती हैं।
श्राद्ध के लिये उचित कार्यो से कमाया धन ही प्रयोग में लायाजाना चाहिये छल कपट चोरी रिश्वत के धन से भी श्राद्ध नही करना चाहिये पितृपक्ष मे श्राद्ध किये जाने के साथ साथ पितरो की मुक्ति व शान्ति के लिये अमावस्या तिथि का भी विशेष रूप से महत्व हैं। अमावस्या के साथ साथ मन्वादि तिथी, संक्रान्तिकाल व्यतीपात, गजच्दाया,चन्द्रग्रहण तथा सूर्य ग्रहण इन समस्त तिथीयो वारो में पितरो की तृप्ति के लिये श्राद्ध करना चाहिये। पुण्यतिथी पुण्यमन्दिर श्राद्ध योग्य ब्रह्मम्ण व श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ हो और आवश्यक हो तो बिना पर्वके इन तिथियों मे भी श्राद्ध किया जा सकता हैं।
अमावस्या को श्राद्ध कर्म करने के लिए पृथ्वी पर प्रत्येक देवी देवता का आगमन सूर्य कि किरणों के मे माध्यम से होता है और सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम अमा है उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य देव तीनों लोकों को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्रदेव निवास करते हैं इस लिए उसका नाम अमावस्या है और यही कारण है कि अमावस्या तिथि प्रत्येक धर्म कार्य के लिए अक्षय फल देने वाली बतायी गयी है। श्राद्धकर्म में इस तिथि का तो विशेष महत्व है। अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताये गये हैं आदित्य, वसु, रूद्र, तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नान्दीमुख पितरों को छोडकर शेष सभी को तृप्त करते हैं। ये पितृगण ब्रह्राजी के समान बताये गये है अत:पद्ययोनि ब्रह्राजी भी इन पितरों को तृप्त करने के पश्चात सृष्टि के कार्य को प्रारम्भ करते हैं। पृथ्वी मृत्यु लोक पर रहने वाले पितरों के वंशज जब अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं और उनके नाम पर दान करते हैं तो वे सभी प्रसन्न होते हैं कुछ लोग अपने पितरों के लिए कुछ नहीं करते उनके पितर भूख- प्यास से व्याकुल और दुखी हो जाते है।
पितरों के सम्बन्ध में एक घटना स्कंद पुराण में कही गई है कि एक बार दिव्य पितर प्वात अन्गिरवात, आज्यप, सोमप, आदि पितर देवराज इन्द्र के पास गये दिव्य पितरों को देख सभी देवताओं ने उनका आदर सत्कार किया और पुजन किया और जब वे पितर लोक को जाने लगे तब क्षुधापिपासा से पीडित रहने वाले मर्त्य पितरों ने दिव्य स्त्रोतों से पितृसूक्तम के मंत्रों से पितरोंको सन्तुष्ट करने वाले वैदिक स्त्रोतों से सभी की स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया प्रसन्न होकर दिव्य पितरों ने मृत्यपितरों से पूछा कि तुम क्या चाहते हो।
मृत्य पितरों ने कहा हम मनुष्यों के पितर हैं अपने कर्मों द्वारा मृत्य लोक से स्वर्ग में आकर देवताओं के साथ निवास करते है। हमें यहां पर भंयकर भूख और प्यास का कष्ट होता है और लगता है कि हम यहां पर जल रहे हैं नन्दन आदिवनों में जो फल लगें हैं उन्हें तोडने का प्रयास करते हैं तो टूटते नहीं गंगा के जल को हाथ में उठाते हैं तो वह रूकता नहीं स्वर्ग में कोई भोजन करता पानी पीता हुआ नहीं दिखता उसके पश्वात भी सब प्रसन्न दिखते हैं नाना प्रकार के भोगों से सभी प्रसन हैं हम भी क्या कभी ऐसे हो सकते हैं।
दिव्य पितरों ने कहा कि जब इन्द्र आदि देवता अन्य कार्यों में लगजाते हैं और हमारे लिए श्राद्ध नहीं करते दान नहीं देते तब हमें भी कष्ट पूर्ण समय बिताना पडता है। हम देवताओं को बताते हैं उसके पश्चात जब देवता श्राद्ध तर्पण द्वारा हमें तृप्त करते है। जब तुम्हारे वशंज तुम्हारे लिए श्राद्ध-दान करेंगे उस समय तुम लोग भी तृप्त हो जाओंगे। दिव्य पितर, मृत्य पितरों को साथ लेकर ब्रह्राजी के पास गये ब्रह्राजी से शास्वत तृप्ति के लिए उपाय पुछे ब्रह्राजी ने पितरों की शान्ति के उपास बताये।
ब्रह्राजी ने बताया कि मनुष्य पिता, पितामह, और प्रपितामह के उददेश्य से तथा मातामह, प्रमातामह, और वृदुप्रमातामह के श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उससे सभी पितर तृप्त होंगे। जो मनुष्य पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्राणों को भोजन करा कर तृप्त करता है और भक्ति पूर्वक पिण्डदान करता है उससे पितरों की सनातन तृप्ति होती है।
अमावस्या के दिन अपने पितरों के लिए श्राद्ध और पिण्डिदान करना चाहिए इससे एक माह तक पितरों की तृप्ति बनी रहती है सूर्य देव के कन्या राशि में रहते समय आश्विन कृष्णपक्ष पितर पक्ष या महालय में जो मनुष्य मृत्यु तिथि पर अपने पितरों का श्राद्ध करता है उस श्राद्ध से पितर एक वर्ष तक तृप्त रहते हैं।
कन्या राशि में सूर्य रहने पर भी जब श्राद्ध नहीं होता तो पितर तुला राशि के सूर्य तक पुरे कार्तिक मास में अपने वंशजों द्वारा किये जाने वाले श्राद्ध का इन्तजार करते है और तब भी न हो तो सूर्य देव के वृश्चिक राशि पर आने पर पितर दीन व निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते है। भर्तृयश के अनुसार भूखे प्यासे व्याकुल पितर वायू रूप में घर के दरवाजे पर खडे रहते हैं।
महर्षि सुमन्तु ने श्राद्ध से होने वाले लाभ के बारे में बताया है कि 'संसार में श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरा कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। अतः बुद्धिमान मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध की आवश्यकता और लाभ पर अनेक ऋषि-महर्षियों के वचन ग्रंथों में मिलते हैं।
कुर्मपुराण में कहा गया है कि जो प्राणी जिस किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर श्राद्ध करता है, वह समस्त पापों से रहित होकर मुक्त हो जाता है और पुनः संसार चक्र में नहीं आता।
गरुड़ पुराण के अनुसार पितृ पूजन (श्राद्धकर्म) से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते हैं।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, सन्तति, धन, विद्या सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।
ब्रह्मपुराण के अनुसार जो व्यक्ति शाक के द्वारा भी श्रद्धा-भक्ति से श्राद्ध करता है, उसके कुल में कोई भी दुःखी नहीं होता। साथ ही ब्रह्मपुराण में वर्णन है कि 'श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक किए हुए श्राद्ध में पिण्डों पर गिरी हुई पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदों से पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए पितरों का पोषण होता है। जिस कुल में जो बाल्यावस्था में ही मर गए हों, वे सम्मार्जन के जल से तृप्त हो जाते हैं।
श्राद्ध का महत्व तो यहाँ तक है कि श्राद्ध में भोजन करने के बाद जो आचमन किया जाता है तथा पैर धोया जाता है, उसी से पितृगण संतुष्ट हो जाते हैं। बंधु-बान्धवों के साथ अन्न-जल से किए गए श्राद्ध की तो बात ही क्या है, केवल श्रद्धा-प्रेम से शाक के द्वारा किए गए श्राद्ध से ही पितर तृप्त होते हैं।
विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते हैं।
हेमाद्रि नागरखंड के अनुसार एक दिन के श्राद्ध से ही पितृगण वर्षभर के लिए संतुष्ट हो जाते हैं, यह निश्चित है।
यमस्मृति के अनुसार जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते हैं, वे सबकी अंतरात्मा में रहने वाले विष्णु की ही पूजा करते हैं।
देवलस्मृति के अनुसार श्राद्ध की इच्छा करने वाला प्राणी निरोग, स्वस्थ, दीर्घायु, योग्य सन्तति वाला, धनी तथा धनोपार्जक होता है। श्राद्ध करने वाला मनुष्य विविध शुभ लोकों को प्राप्त करता है, परलोक में संतोष प्राप्त करता है और पूर्ण लक्ष्मी की प्राप्ति करता है।
अत्रिसंहिता के अनुसार पुत्र, भाई, पौत्र (पोता), अथवा दौहित्र यदि पितृकार्य में अर्थात् श्राद्धानुष्ठान में संलग्न रहें तो अवश्य ही परमगति को प्राप्त करते हैं।
स्कन्द पुराण के काशी खण्ड पूर्वार्ध के अनुसार जो चलते खडे होते जप और ध्यान करते खाते-पीते जागते सोते तथा बात करते समय भी सदा गंगाजी का स्मरण करता है वह संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है और जो पितरों के लिए भक्ति पूर्वक गुड, घी, और तिल के साथ मधुयुक्त खीर गंगा जी में स्थापित करते है। उनके पितर सौ वर्ष तक तृप्त हो जाते हैं और सन्तुष्ट होकर अपनी सन्तानों को नाना प्रकार की मनोवाच्छित वस्तुऐं प्रदान करते हैं।
श्राद्ध संस्कार के लिए सामान्य यज्ञ देव पूजन की सामग्री के अतिरिक्त नीचे लिखे अनुसार व्यवस्था बना लेनी चाहिए
- तर्पण के लिए पात्र ऊँचे किनारे की थाली, परात, पीतल या स्टील की टैनियाँ (तसले, तगाड़ी के आकार के पात्र) जैसे उपयुक्त रहते हैं । एक पात्र जिसमें तर्पण किया जाए, दूसरा पात्र जिसमें जल अर्पित करते रहें । तर्पण पात्र में जल पूर्ति करते रहने के लिए कलश आदि पास ही रहे । इसके अतिरिक्त कुश, पात्रिवी, चावल, जौ, तिल थोड़ी-थोड़ी मात्रा में रखें ।
- पिण्ड दान के लिए लगभग एक पाव गुँथा हुआ जौ का आटा । जौ का आटा न मिल सके, तो गेहूँ के आटे में जौ, तिल मिलाकर गूँथ लिया जाए । पिण्ड स्थापन के लिए पत्तलें, केले के पत्ते आदि । पिण्डदान सिंचित करने के लिए दूध-दही, मधु थोड़ा-थोड़ा रहे ।
- पंचबलि एवं नैवेद्य के लिए भोज्य पदार्थ । सामान्य भोज्य पदार्थ के साथ उर्द की दाल की टिकिया (बड़े) तथा दही इसके लिए विशेष रूप से रखने की परिपाटी है । पंचबलि अर्पित करने के लिए हरे पत्ते या पत्तल लें ।
-पूजन वेदी पर चित्र, कलश एवं दीपक के साथ एक छोटी ढेरी चावल की यम तथा तिल की पितृ आवाहन के लिए बना देनी चाहिए ।
क्रम व्यवस्था-
श्राद्ध में देवपूजन एवं तर्पण के साथ पञ्चयज्ञ करने का विधान है । यह पंचयज्ञ, ब्रह्ययज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ है । इन्हें प्रतीक रूप में 'बलिवैश्य देव' की प्रक्रिया में भी कराने की परिपाटी है । वैसे पितृयज्ञ के लिए पिण्डदान, भूतयज्ञ के लिए पंचबलि, मनुष्य यज्ञ के लिए श्राद्ध संकल्प का विधान है । देवयज्ञ के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन-देवदक्षिणा संकल्प तथा ब्रह्मयज्ञ के लिए गायत्री विनियोग किया जाता है । अन्त्येष्टि करने वाले को प्रधान यजमान के रूप में बिठाया जाता है । विशेष कृत्य उसी से कराये जाते हैं ।
अन्य सम्बन्धियों को भी स्वस्तिवाचन, यज्ञाहुति आदि में सम्मिलित किया जाना उपयोगी है । प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद संकल्प कराएँ । फिर रक्षाविधान तक के उपचार करा लिये जाते हैं । इसके बाद विशेष उपचार प्रारम्भ होते हैं । प्रारम्भ में यम एवं पितृ आवाहन-पूजन करके तर्पण कराया जाता है ।
विसर्जन के पूर्व दो थालियों में भोजन सजाकर रखें । इनमें देवों और पितरों के लिए नैवेद्य अर्पित किया जाए । पितृ नैवेद्य की थाली में किसी मान्य वयोवृद्ध अथवा पुरोहित को भोजन करा दें और देव नैवेद्य किसी कन्या को जिमाया जाए । विर्सजन करने के पश्चात् पंचबलि के भाग यथास्थान पहुँचाने की व्यवस्था करें । पिण्ड नदी में विसर्जित करने या गौओं को खिलाने की परिपाटी है । इसके बाद निर्धारित क्रम से परिजनों, कन्या, ब्राह्मण आदि को भोजन कराएँ । रात्रि में संस्कार स्थल पर दीपक रखें ।
तपर्ण को छः भागों में विभक्त किया गया है-
1-देव-तपर्ण 2- ऋषि-तपर्ण 3- दिव्य-मानव-तपर्ण 4- दिव्य-पितृ-तपर्ण 5- यम-तपर्ण 6- मनुष्य-पितृ-तपर्ण
मेरे और मेरे दोस्तो के विचार (मरने के बाद आप सोने के पकवान बनाकर खूब दान-पुण्य करके भी उनकी आत्मा को तृप्त नहीं कर सकते। जो इंसान जीते जी अपने माँ-बाप को रुलाता हो, उन्हें भूखा रखता हो या उनकी उपेक्षा करता हो वो भला सुख कैसे पा सकता है। ऐसी बात नहीं कि हर व्यक्ति ही ऐसा हो। कई व्यक्ति, कई परिवार बुजुर्गों की सेवा अपने बच्चों से अधिक करते हैं। कई बेटे आज भी श्रवण के समान हैं और होंगे।)क्या आप इससे सहमत हैं मार्ग दशर्न करे